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वृंदावन वाले प्रेमानंद महाराज का हर कोई भक्त है. उनके कीर्तिन और ज्ञान वाली बातें लोगों को काफी मोटिवेट करती हैं. प्रेमानंद महाराज के दर्शन के लिए लोग दूर-दूर से वृंदावन पहुंचते हैं.
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प्रेमानंद महाराज का जन्म अखरी गांव, सरसौल ब्लॉक, कानपुर, उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण (पांडेय) परिवार में हुआ था और उनका नाम अनिरुद्ध कुमार पांडे था.
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घर का माहौल भक्तिमय, अत्यंत शुद्ध और शांत होने के कारण उनका संतों की तरफ शुरू से ही काफी झुकाव था. वे हमेशा भक्ति सेवा में लगे रहते थे.
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जब प्रेमानंद महाराज 9वीं क्लास में थे, तब उन्होंने सन्यासी बनने का फैसला किया था और रात में 3 बजे घर से भाग गए थे. नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा लेने के बाद उनका नाम आनंद स्वरूप ब्रह्मचारी रखा गया था.
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प्रेमानंद महाराज ने दीक्षा के बाद उन्होंने अपने जीवित रहने के लिए केवल आकाशवृत्ति को स्वीकार किया, जिसका अर्थ है बिना किसी व्यक्तिगत प्रयास के केवल भगवान की दया से प्रदान की गई चीजों को स्वीकार करना.
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आध्यात्मिक साधक के रूप में, उनका अधिकांश जीवन गंगा नदी के तट पर बीता क्योंकि उन्होंने कभी भी आश्रम के पदानुक्रमित जीवन को स्वीकार नहीं किया.
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वह भूख, कपड़े या मौसम की परवाह किए बिना गंगा के घाटों (हरिद्वार और वाराणसी के बीच अस्सी-घाट और अन्य) पर घूमते रहे. भीषण सर्दी में भी उन्होंने गंगा में तीन बार स्नान करने की अपनी दिनचर्या को कभी नहीं छोड़ा.
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वह कई दिनों तक बिना भोजन के उपवास करते थे और उनका शरीर ठंड से कांपता था लेकिन वह ध्यान में पूरी तरह से लीन रहते थे.
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एक दिन बनारस में एक पेड़ के नीचे ध्यान करते समय, श्री श्यामाश्याम की कृपा से वह वृन्दावन की महिमा की ओर आकर्षित हो गए और फिर एक संत की प्रेरणा ने उन्हें वृंदावन पहुंचा दिया.
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वृंदावन पहुंचकर उनकी प्रारंभिक दिनचर्या में वृन्दावन परिक्रमा और श्री बांकेबिहारी के दर्शन शामिल थे. बांके बिहारीजी के मंदिर में उन्हें एक संत ने बताया कि उन्हें श्री राधावल्लभ मंदिर भी अवश्य देखना चाहिए.
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मंदिर के दर्शन के अगले दिन जब वह वृन्दावन परिक्रमा कर रहे थे तब एक सखी एक श्लोक गाते हुए परिक्रमा कर रही थी. महाराज जी ने जब उनसे इसका अर्थ समझाने को कहा तो सखी ने कहा इसका अर्थ समझने के लिए आपको राधावल्लभी बनना होगा.
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बस फिर क्या था प्रेमानंद महाराज दीक्षा के लिए पूज्य श्री हित मोहित मराल गोस्वामी जी से संपर्क किया और दीक्षा ले ली.
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महाराज जी 10 वर्षों तक अपने सद्गुरु देव की निकट सेवा में रहे और उन्हें जो भी कार्य दिया जाता था, उसे पूरी निष्ठा से करते हुए उनकी सेवा करते थे.
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जल्द ही अपने सद्गुरु देव की कृपा और श्री वृंदावनधाम की कृपा से, वह श्री राधा के चरण कमलों में अटूट भक्ति विकसित करते हुए सहचरी भाव में पूरी तरह से लीन हो गए और राधा रानी की सेवा में लग गए.
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