बिना चखने के नामुमकिन है शराब, जानिए कब और कैसे शराब का साथी बना चखना

01 March 2025

शराब का कड़वापन कम करने के लिए या शराब के साथ सेहत की थोड़ी फ्रिक्र के लिए स्नैक्स या कहें तो चखना खाया जाता है.

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हालांकि शराब के साथ स्नैक्स को थोड़ा-थोड़ा यानी कि चखकर खाया जाता है, शायद इसलिए इसे चखना कहा जाता है.

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अधिकतर लोग चखने के बिना शराब की कल्पना नहीं कर सकते हैं लेकिन ये चखना शराब का साथी बना कैसे? इसके पीछे दिलचस्प कहानी है. आइए आपको बताते हैं.

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शराब पीने के साथ कुछ खाने की परंपरा सदियों पुरानी है. हालांकि, खान-पान के इतिहास पर नजदीक से नजर रखने वाले 19वीं शताब्दी की एक घटना को चखने के व्यवसायीकरण का मुख्य कारण मानते हैं. 

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कहा जाता है कि 1838 में अमेरिकी शहर न्यू ऑरलियंस के एक बार ला बोरसे डि मास्पेरो ने पहली बार ग्राहकों को 'फ्री लंच' का तोहफा दिया. यहां ड्रिंक ऑर्डर करने वाले हर शख्स को मुफ्त में एक प्लेट खाना मिलता था. 

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मकसद ग्राहकों को और शराब पीने के लिए लुभाना था. मुफ्त खाने की लालच में लोग ऐसे दुकानों पर जुटने लगे.

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हालांकि, इसके कुछ वक्त बाद, कनाडा, अमेरिका, नॉर्वे जैसे देशों में शराबबंदी के पक्ष में एक सामाजिक अभियान चला, जिसे 'The Temperance movement' के तौर पर जाना जाता है.  

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इन आंदोलनों का ही असर था कि शराब बिक्री को हतोत्साहित करने के लिए नियम कायदे बनने लगे. ऐसा ही एक नियम 19वीं शताब्दी के आखिर में न्यू यॉर्क में बना.

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अब वही होटल रविवार को शराब परोस सकते थे, जिनके यहां कम से कम 10 कमरे हों और जो ड्रिंक्स के साथ मुफ्त खाने-पीने की चीजें देते हों.

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रविवार को ऐसी बंदिश इसलिए क्योंकि तत्कालीन समाज के लोग 6 दिन की कड़ी मेहनत के बाद रविवार को थकान उतारने के लिए शराब की दुकानों का रुख करते थे.

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इस नियम का असर यह हुआ कि छोटे-छोटे बार भी नियमों के तहत शराब बेचने के लिए घटिया क्वॉलिटी का खाना परोसने लगे.

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हालांकि, शराब के साथ खाना अब लोगों की पीने की आदत का हिस्सा बनने लगा.

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भारत में शराब बंदी की अधिकतर मुहिम आजादी के बाद ही चलाई गईं. अंग्रेजी शासन ने कभी इस बारे में सोचा ही नहीं क्योंकि यह शराब की बिक्री की उसकी आय का बड़ा जरिया थी.

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हालांकि, 20वीं शताब्दी की शुरुआत में तत्कालीन बॉम्बे में मेहनतकश मिल वर्करों की एक बड़ी आबादी तैयार हो रही थी, जो दिन भर की जीतोड़ मेहनत की थकान शाम को शराब के जरिए उतारती थी.

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नशा करने वाले बढ़ने लगे तो अमेरिका जैसी बंदिशें भारत में भी आ गईं. असर भी वैसा ही रहा.

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शराब के साथ खाना परोसने की बाध्यता के बाद इसका व्यवसाय करने वालों ने बेहद सस्ती और कभी-कभी घटिया चीजें परोसने लगे.

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इनमें घोड़ों को खिलाए जाने वाले चने, उबले अंडे से लेकर मूंगफली तक शामिल थी. खराब स्तर के खाने-पीने की चीजें परोसे जाने की शिकायतें भी हुईं. 

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फिर आजाद भारत और 1950 के दौर में लागू शराब बंदी ने एक और बड़ा बदलाव किया. शराब बंदी लागू तो हुई लेकिन शराब की दुकानें गुपचुप ढंग से चलने लगीं.

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अगर कोई कबाब या मीट बेच रहा हो तो समझ जाइए कि आसपास कोई बड़ा और शानदार ठेका जरूर मौजूद था. चने, मूंगफली, उबले अंडे बेचने वाले इन दुकानों की दोहरी जिम्मेदारी थी.

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देखा जाए, तो आज भी शराब की दुकान के आसपास कुकुरमुत्ते की तरह मौजूद चखना के कई दुकान वही काम कर रहे हैं.

फिर 70 का दशक आया, जब कुछ बेहतर बार मुफ्त में चने और चटनी जैसी चीजें देने लगे. 90 का दशक आते-आते ग्रिल्ड चिकन और चायनीज तक चखना मेन्यू का हिस्सा बन गया.

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