करघे से आलमारी तक, जानें बनारसी साड़ी का सदियों पुराना सफर

18 Aug 2025

Photo: AI Generated

बनारस,  ये है गंगा किनारे का शहर… वाराणसी. जहां सिर्फ पूजा नहीं, हुनर भी बसता है. यहां की गलियों में पैदा हुई… बनारसी साड़ी, जो सदियों से दुल्हन की पहली पसंद रही है.

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हर डिज़ाइन की अपनी अलग कहानी. तो चलिए जानते हैं बनारस की गलियों से लेकर दुनिया भर में प्रसिद्ध बनारसी साड़ी का इतिहास.

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बहुत समय पहले, गंगा किनारे बसा शहर काशी (वाराणसी) न केवल धर्म और शिक्षा का केंद्र था, बल्कि हुनर की बस्ती भी थी. यहां के बुनकरों के हाथों में जादू था.

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मुगल काल (16वीं सदी) में जब शासक भारत आए, तो वे अपने साथ फारसी और मुगल डिज़ाइन भी लाए. काशी के बुनकरों ने इन्हें भारतीय कारीगरी से मिलाया और एक नई कला जन्मी –“बनारसी बुनाई”.

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बुनाई के लिए महीन कतान और रेशमी धागों का इस्तेमाल होता था. उन पर सोने-चांदी की ज़री डाली जाती थी.

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एक बुनकर को एक साड़ी बनाने में हफ़्तों नहीं, महीनों तक लग जाते थे.  ऐसा कहते हैं एक असली बनारसी साड़ी बनाने में 6 महीने तक लग सकते हैं.

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हर डिज़ाइन की अपनी भाषा है, यहां खास कर जंगल पैटर्न में फूल-पत्तियां और बेलें, मीनाकारी में रंग-बिरंगे धागों का मेल होता है.

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बुटीदार डिज़ाइन में छोटे-छोटे फूल पूरे कपड़े में बनाते हैं.  शादी की सबसे खास साड़ी – जरी वाली लाल बनारसी, जो दुल्हन की पहचान बन गई.

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मुगल बादशाहों और रानियों से लेकर आज की बॉलीवुड अभिनेत्रियां तक, बनारसी साड़ी शान और राजसी ठाठ की निशानी रही है.

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कहते हैं, कभी ये साड़ियां इतनी कीमती होती थीं कि शाही परिवार ही इन्हें पहन सकता था.

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आज बनारसी साड़ी सिर्फ भारत नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में Indian Royal Silk के नाम से जानी जाती है.

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वाराणसी की गलियों में अब भी करघे बजते हैं, जिन्हें सुनकर लगता है जैसे गंगा की लहरें और बुनकर की उंगलियां मिलकर इतिहास बुन रही हों.

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